भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को बछ बारस का पर्व मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं अपने संतान की दीर्घायु और सुख-समृद्धि की कामना करते हुए व्रत रखती हैं। बछ बारस का यह पर्व मुख्य रूप से उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में मनाया जाता है, लेकिन अब यह शहरी क्षेत्रों में भी लोकप्रिय हो गया है।
पौराणिक कथा :
बछ बारस की पौराणिक कथा के अनुसार, यह पर्व भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ा हुआ है। कथा के अनुसार, एक बार एक ग्वालिन के नवजात बछड़े की मृत्यु हो गई। ग्वालिन ने दुखी होकर भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण ने बछड़े को पुनर्जीवित कर दिया। इस घटना के बाद, महिलाओं ने इस दिन को संतान की दीर्घायु और सुख-समृद्धि के लिए व्रत के रूप में मनाना शुरू किया।
दूसरी कथा के अनुसार, जब भगवान श्रीकृष्ण ने कालिया नाग का वध किया, तो सभी ग्वालबाल और गोपियां उनके साहस से प्रभावित हुईं। उस दिन को यादगार बनाने के लिए उन्होंने बछ बारस का व्रत रखने का संकल्प लिया। इस व्रत में वे गाय और बछड़े की पूजा करती हैं, क्योंकि गाय को माता का दर्जा दिया गया है और बछड़ा उसकी संतान का प्रतीक माना जाता है।
इन कथाओं के पीछे यह संदेश छिपा है कि गाय और बछड़े की पूजा करने से संतान सुख, दीर्घायु और समृद्धि प्राप्त होती है। बछ बारस का व्रत माताओं द्वारा अपने बच्चों के स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए किया जाता है, और इस दिन विशेष रूप से गाय और बछड़े की पूजा का महत्व है।
पौराणिक कथा के अनुसार, बछ बारस के दिन गाय और बछड़े की पूजा का विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने बछड़े का रूप धारण कर माताओं के प्रति सम्मान और भक्ति का संदेश दिया था। इस दिन महिलाएं व्रत रखकर गाय और बछड़े की पूजा करती हैं और अपने बच्चों की सुख-समृद्धि की प्रार्थना करती हैं।
व्रत के दौरान महिलाएं दूध और दूध से बने पदार्थों का सेवन नहीं करतीं। इसके पीछे यह मान्यता है कि इस दिन गाय के दूध और उसके उत्पादों का त्याग करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है। पूजा के दौरान महिलाएं अपने घरों में बछड़े के प्रतीक रूप में मिट्टी की मूर्तियां बनाकर उनका पूजन करती हैं।
बछ बारस का व्रत संतान के सुखद भविष्य और उसकी लंबी आयु के लिए किया जाता है। इस दिन महिलाएं दिनभर निर्जल व्रत रखती हैं और शाम को पूजा-अर्चना के बाद व्रत खोलती हैं।
बछ बारस का पर्व मातृत्व की महिमा और संतान के प्रति माताओं के स्नेह का प्रतीक है। इस व्रत का पालन करने वाली महिलाएं संतान के स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए विशेष रूप से इस दिन को समर्पित करती हैं।